जीवन परिचय
करपूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौंझिया (अब करपूरी ग्राम) गाँव में हुआ। उनके माता-पिता का नाम गोपाल ठाकुर और रामदुलारी देवी था। वे नाई समाज से संबंध रखते थे। महात्मा गांधी और सत्यनारायण सिन्हा से प्रेरित होकर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। उन्होंने आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन से जुड़कर छात्र आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।
भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपनी कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और 26 महीने जेल में बिताए। आजादी के बाद उन्होंने अपने गाँव के स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया। 1952 में वे ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में बिहार विधानसभा के सदस्य बने।
राजनीतिक योगदान
करपूरी ठाकुर हिंदी भाषा के समर्थक थे। बिहार के शिक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने मैट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य विषय से हटा दिया। हालांकि, इसे लेकर विवाद हुआ और आलोचक इसे राज्य में अंग्रेजी शिक्षा के निम्न स्तर के लिए जिम्मेदार मानते हैं।
1970 में वे बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी समाजवादी मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने बिहार में शराबबंदी लागू की और पिछड़े क्षेत्रों में कई स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की। 1978 में उन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 26% आरक्षण लागू किया, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग (12%), अति पिछड़ा वर्ग (8%), महिलाएं (3%) और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (3%) शामिल थे।
आपातकाल और समाजवादी आंदोलन
आपातकाल (1975-77) के दौरान, करपूरी ठाकुर ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में “सम्पूर्ण क्रांति” आंदोलन में भाग लिया। 1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने जनता पार्टी के नेता के रूप में कांग्रेस को भारी पराजय दी।
हालांकि, उनके आरक्षण नीति को लेकर जनता पार्टी में अंदरूनी मतभेद हुए। ऊँची जातियों के दबाव के चलते उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा और राम सुंदर दास ने उनकी जगह ली।
धरोहर और सम्मान
करपूरी ठाकुर को गरीबों और पिछड़े वर्गों का सच्चा नेता माना जाता है। उन्हें लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, देवेंद्र प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे प्रमुख नेताओं का राजनीतिक गुरु कहा जाता है।
उनकी सरल जीवनशैली और जनहित में लिए गए निर्णय उन्हें आज भी जनता के बीच “जननायक” के रूप में अमर बनाते हैं।